कहीं कैंची मंदिर न बन जाए दूसरा धराली

धराली की आपदा : विकास की आड़ में विनाश की इबारत”

उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में आई आपदा ने न केवल जान-माल का भारी नुकसान पहुंचाया, बल्कि पहाड़ों में हो रहे अनियोजित और बेतहाशा निर्माण पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह घटना किसी प्राकृतिक आपदा से ज़्यादा मानवजनित भूलों का परिणाम प्रतीत होती है — जिनमें विकास के नाम पर लापरवाही, लालच और प्रशासनिक उदासीनता प्रमुख हैं। धराली, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक आस्था का केंद्र रहा है, आज उसी आस्था और सुंदरता के बोझ तले दबता जा रहा है। पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि जहां आज तबाही हुई है, वह क्षेत्र 1978 में खीर गंगा के पुराने रास्ते का हिस्सा था। समय के साथ उस प्रवाह मार्ग में निर्माण होते गए, लेकिन प्रकृति ने अपने मार्ग को फिर से पा लिया और वह मलबे को बहाते हुए भागीरथी से जा मिली। यह इस बात का प्रमाण है कि आप नदी के रास्ते को चाहे जितना भी रोकने की कोशिश करें, वह अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है। उत्तरकाशी हमेशा से भूकंप संवेदनशील क्षेत्र रहा है। 1991 में आए विनाशकारी भूकंप के बाद कई घोषणाएं हुईं — मास्टर प्लान, भूकंपरोधी निर्माण, पर्यावरणीय संतुलन — लेकिन यह सब केवल कागजों तक ही सीमित रह गया। ज़मीनी हकीकत यह है कि न तो निर्माण की कोई निगरानी हुई और न ही नियोजन के नियमों का पालन। परिणामस्वरूप, हम आज धराली जैसी त्रासदियों को देख रहे हैं।

💥इसी तरह की स्थिति कुमाऊं क्षेत्र में भी तेजी से पनप रही है। गांव-देहातों में मानकों के विपरीत बहुमंजिला इमारतें खड़ी की जा रही हैं, जिनमें अधिकतर बाहरी निवेशकों का हाथ है। प्रशासन पूरी तरह मूकदर्शक बना हुआ है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कैंची मंदिर — जिसे कुछ व्यवसायिक हितों ने पर्यटन स्थल बनाने के उद्देश्य से “धाम” का नाम दे दिया। जबकि हकीकत यह है कि यह एक साधारण मंदिर था, जहां कभी साल में केवल एक बार 15 जून को मेला लगता था। आज वहां प्रतिदिन जाम लगता है, पहाड़ों को काटकर होटल बनाए जा रहे हैं, नदियों के बहाव को मोड़ा जा रहा है — और प्रशासन आंखें मूंदे बैठा है।

यह याद रखना ज़रूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन यदि संतुलन और समझदारी के साथ न किया जाए, तो यह ‘विकास’ नहीं, ‘विनाश’ बन जाता है। धराली जैसी घटनाएं केवल चेतावनी नहीं, बल्कि सबक हैं — जो हमें बार-बार झकझोर रही हैं। लेकिन अगर हमने अब भी नहीं सीखा, तो भविष्य में कैंची या अन्य पर्यटक स्थल भी धराली जैसी ही आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। इसलिए सरकार से मेरा विनम्र निवेदन है कि नदियों और पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए। नदी-नालों पर अतिक्रमण और पहाड़ों की कटाई पर सख्त कार्रवाई हो। पहाड़ जैसा है, उसे वैसा ही रहने दें — उसी में इसकी सुंदरता और जीवन की सुरक्षा छिपी है। पहाड़ों को लोगों की अय्याशी और व्यवसायिक मुनाफे का केंद्र न बनने दें। यदि ऐसा न किया गया, तो अगली त्रासदी कितनी भयावह होगी, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। पर्वतों की रक्षा में ही पर्वतीय जीवन की सुरक्षा है। यही समय है चेतने का।

✍️ हरीश उप्रेती करन, साहित्यकार

Harish Upreti Karan

पिछले 20 वर्षों से दैनिक जागरण, हिंदुस्तान व अमृत विचार में पत्रकार के रूप में कार्य करने के अलावा चार काव्य संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी रामपुर व अल्मोड़ा से विभिन्न रचनाओं का प्रसारण, हिंदी फिल्म "यंग बाइकर्स" के लिए गीत लेखन, पर्यटन विभाग के लिए बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म "चंपावत एक धरोहर" की स्क्रिप्ट राइटिंग, कुमाऊनी फिल्म "फौजी बाबू", "पधानी लाली", रंगमंच के विभिन्न नाटकों में अभिनय, कुमाऊनी गीत "पहाड़ छोड़ दे" और "काली जींस" का लेखन व गायन, फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई का सदस्य