कितना शांत, सुंदर और आत्मिक सुख देने वाला हुआ करता था मेरे बचपन का पहाड़। हर सुबह पक्षियों की चहचहाहट से खुलती थी, ठंडी हवा की सरसराहट से शरीर में नया जीवन भर जाता था और हर दिशा में हरियाली ऐसे लहराती थी मानो कुदरत खुद हमें आशीर्वाद दे रही हो। तब का जीवन कठिन जरूर था, पर उसमें एक मिठास थी, एक अपनापन था और सबसे बड़ी बात, एक सुरक्षित भविष्य का आभास था।
बारिश तब भी होती थी सतझड़ कहते थे हम उसे, लगातार सात दिनों तक मूसलधार वर्षा। गांव के चारों ओर बहेने वाले गधेरे (छोटे बरसाती नाले) गुस्से से सरसराते हुए बहते थे, जैसे कोई नागिन अपनी पूरी ताक़त से अपनी राह बना रही हो। दूर तक फैली पहाड़ियों पर पानी ऐसे गिरता था मानो सैकड़ों झरने एक साथ फूट पड़े हों। पानी, हरियाली और प्रकृति की लयबद्ध ध्वनि यही था मेरा पहाड़। पर आज…अब तो हर दिशा में बस त्रासदी है। अब गधेरे जीवन के संकेत नहीं, बल्कि तबाही की आहट हैं। पानी अब जीवन नहीं, मृत्यु का संदेश लेकर आता है। अब जब बारिश होती है, तो मन में सुकून नहीं डर पैदा होता है। कहीं भूस्खलन न हो जाए, कहीं किसी का घर जमींदोज न हो जाए। कभी प्रकृति की गोद में लोरी सुनता मेरा पहाड़ आज कराह रहा है किसकी नजर लग गई मेरे पहाड़ को? अरे अब समझ आता है, यह प्राकृतिक नहीं, मानवीय त्रासदी है। आज मेरे पहाड़ की रगों में बहते पानी पर खनन माफियाओं की नजर है। जिन खेतों में हम फसलें उगाते थे, उन पर अब भू-माफियाओं की कुदृष्टि है। जो जंगल कभी हमें जीवन देते थे, उन्हें वन माफिया बेरहमी से काट रहे हैं। और यह सब एक संगठित तंत्र के तहत हो रहा है जिसमें सरकारें भी शामिल हैं। सरकार अब पहाड़ों को बस “टूरिज्म ज़ोन” मानकर देखती है। मंदिरों की भी पवित्रता अब बाज़ार में तौल दी गई है। जो स्थान कभी साधना और एकांतवास के प्रतीक थे, आज वहां पर्यटकों की भीड़ है — कैमरे, हंसी-ठिठोली, शोर और प्रदूषण। न देवी-देवताओं को एकांत मिल रहा है, न पहाड़ को चैन। ऐसे में अगर शिवजी अपना तीसरा नेत्र खोलें, तो क्या गलत होगा? हमने पहाड़ की आत्मा को छलनी कर दिया है। खनन के लिए पहाड़ों का सीना चीरा जा रहा है, सड़कों के नाम पर पेड़ों की कतारें साफ की जा रही हैं, बड़े-बड़े होटल और अट्टालिकाएं बन रही हैं जिनका फायदा केवल बाहरी लोगों को है। और जब ये पहाड़ टूटते हैं, जब मलबा गांवों को बहा ले जाता है, तो मारे जाते हैं स्थानीय लोग — जिनका कसूर बस इतना है कि वे यहां रहते हैं। किसी को उनके दर्द की परवाह नहीं है। सरकारी फाइलों में बस आंकड़े दर्ज होते हैं- इतने मरे, इतना नुकसान हुआ। लेकिन उन आंकड़ों के पीछे जो जिंदगियां हैं, जो सपने हैं, उनका क्या? और सबसे दुखद बात यह है कि यह सब जानते हुए भी कोई कुछ नहीं करता। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं। अफसर, नेता, व्यापारी, ठेकेदार सबके घर नोटों से भर रहे हैं, और पहाड़ की आत्मा हर रोज मरती जा रही है। अब भी वक्त है…अगर अब भी नहीं चेते, तो वह दिन दूर नहीं जब पहाड़ हमारे बचपन की स्मृति बनकर रह जाएंगे और आज के बच्चों को हम सिर्फ कहानियों में बताएंगे कि कभी यहां शांति हुआ करती थी, कभी यह धरती स्वर्ग से कम नहीं थी। क्या हम ऐसा पहाड़ अपने आने वाली पीढ़ियों को देना चाहते हैं? सोचना होगा… नहीं तो पहाड़ फिर टूटेगा और अगली बार शायद संभलने का मौका भी न मिले।
✍️ हरीश उप्रेती करन, हल्द्वानी, नैनीताल
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